नदिया और जीवन चक्र
नदिया जब समन्दर से जा मिली
इतरा के समन्दर बोला, अब तो खुश हो?
आखिर मैं तुम्हें मिल गया?
मासूम सी नदिया ने कहा,
तुम्हें पाने के लिए मैंने इतने उतार चड़ाव देखें हैं
अब तुमको पाने की ना खुशी है
ना तुमसे मिलने का अफसोस है
यह पल कुछ ऐसे आया है
बड़ी शिद्दत थी तुझे पाने की
पर अब कुछ अलग रंग लाया है
बहती रही मैं, थोड़ा ठहर कर दम भी नहीं भरा
पर आज लगता है, शायद कहीं रुक जाती
जब सुबह कोई अपनी अंजुली भर दुआ करता
उसकी उम्मीद का सहारा बन जाती
थोड़ी ही सही तपती धूप से बातें कर लेती
सूखी हवा को तरबरोर कर देती
पर तुमसे मिलने की जिद्द में भागती रही
भागती रही, शायद मैं गलत थी
जीवन चक्र धीमे धीमे चले
मज़ा उसी में है, ना के भागते रहने में।